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माँ पर बेहतरीन गीत //kavi kundan

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 माँ  ख्वाबों में तू है ख्यालों में तू मेरा है जन्नत मेरी है आरज़ू। तूझे दिल में बसाया है पलकों पर बैठाया है अपने मन के मंदिर में सिर्फ तेरा घर बनाया है मुझमें बहता हर रक्त है तू मेरा है जन्नत मेरी है आरज़ू। तू भगवान हमारा है तू पहचान हमारी है तूझे कैसे बताऊँ माँ तू तो जान हमारी है सांसों में तू है धड़कन में तू मेरा है जन्नत मेरी है आरज़ू। कुन्दन कुंज  पूर्णिया, बिहार 

नज्म़ (किसने देखा है)

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 नज्म़   -------- इस सदी के चाँद को किसने देखा है। मौत होगी उससे पहले किसने देखा है। ठहर जाओ वक्त को खरीदने वालों। राजा को रंक बनते किसने देखा है। महकती कलियाँ तोड़ मुस्कुराते हो।  इन्हें दर्द से तरपता किसने देखा है।  धनु पे शर रख खुद पर अजमाते हो। मौत को करीब आते किसने देखा है।  चन्द मुसीबतों के फंदे से लटकने वालों।   मौत से जिंदगी हसीन है किसने देखा है।  खुद पे अकीन नहीं पर रब को मानते हो।  खुदा  जमीन  पर  है उसे  किसने देखा है। तरासता चल गतिशील होकर मेहनत से।  किस्मत का पन्ना पलटते किसने देखा है।। ----------------------------------------------------- कुन्दन कुंज  बनमनखी, पूर्णिया  30/09/20

ग़ज़ल

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  नज्म़  -------------------------------------- मेरा दिल वापस कर दो तुम।  मेरा जख्म़ी दिल भर दो तुम। तन्हाइयों  में  मैं हूँ अकेला।  उसे  भी  पूरा   कर दो तुम। भटक रहा मन बावला बन। इसको आ कर ठहर दो तुम।  नींद जो छीनी है आँखों से।  उसको  जरा  इधर दो तुम।  परेशान हुआ जिन्दगी से मैं।  मुझको  अब  जहर दो तुम।  अगर वो भी नहीं मिलती है।  तो मौत को ही खबर दो तुम। खो जाऊँ मैं  अनंत नभ में। ऐसा कोई रहम कर दो तुम।  ------------------------------------- कुन्दन कुंज  बनमनखी, पूर्णिया  25/09/20

मैं औ'मेरे ख्वाब

 मैं औ'मेरे ख्वाब   -------------------------------- मैं रोता हूँ, दर्द की सैय्या पर सोता हूँ। रश्मि की डोरी में,खुद को पिरोता हूँ।।  अगणित ख्वाबों को अंतस्थ में लिए। उनकी वाटिका में खुद को डुबोता हूँ।। अजनबी को देख भभर जाते हैं सब।  धीरे - धीरे दोस्ती का हाथ बढाता हूँ।।  हम अपरिचित से परिचित होने लगे।  इस दुनिया की दास्तान उन्हें सुनाता।। अविचलित हुए, कर्ण साधे मुझ पर।  मैं शब्दों का अंजुमन वहाँ सजाता हूँ।  खुद को छोड़ वहाँ राख लाया हूँ यहाँ।  अरमानों के चिताओं से दर्द निगोता हूँ।  ------------------------------------------------ कुन्दन कुंज  बनमनखी, पूर्णिया  बिहार, 6201665486 

नज्म़

नज्म़ ----------------------------------------- ग़मों का सागर, जख्म़ों की धारा। सिंधु से भी गहरा, प्यार हमारा।। डूब गया, अविश्वास की लहरों से, मिला ना जिसको, आज किनारा। मौसम  से  पहले ही, बदल  गया। अपनी खिलती, बागों का नज़ारा। किए जो वादें, साथ  निभाने  का। मुझको मिला ना, उसका सहारा।। चाहा उसे मैंने, खुद से भी ज्यादा। जीत कर भी बाजी, है मैंने  हारा।। जिस्म  से  रूह भी, जाने  लगी है। खोने  लगा  है नूर, चाँद सितारा।। जिसको हर पल था, मैंने निखारा। उसने  जीते  जी है, मुझको  मारा। खुशियाँ मिले उसे, मेरे हिस्सा का। मुझे मिल जाए दर्द, उसका सारा।। ------------------------------------------- कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णियाँ बिहार 13/09/ 20

हिन्दी

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 हिन्दी दिवस   हिन्दी  हिंद  के रज कण में भरती है जान। हिन्दी  बिना सूना है समस्त हिंद का प्राण। हिन्दी जन-जन की भाषा  है हमारी मान। हिन्दी नीर, शब्द सुधा  हिन्दी है पहचान।। दिनकर,पंत, कबीर सबने छोड़े शब्द बाण। बढाई हिन्दी की परिधि हुआ जन कल्याण। अश्वघोष  की बाणी  बच्चन की मधुशाला। तुलसी, मुंशी, महादेवी  औ' छाये  निराला। कई सूरमाओं ने हिन्दी में चार चाँद लगाया। सबने अपनी लेखनी से इसका मान बढ़ाया। आज विश्व के शिखर पटल पे है इसकी शान। मैं हूँ हिन्दी  का सेवक, खुद पे है  अभिमान।। हिन्दी लगती मिसरी मलाई शब्दों की है परी। माँ की  मीठी लोरी, पापा की लगती है छड़ी। कुछ  लोग  हिन्दी  बोलने से क्यों कतराते हैं। अपनी  मातृभाषा  छोड़  अंग्रेजी  फरमाते हैं। कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया बिहार, 14/09/2020

ग़ज़ल

 ग़ज़ल 1212 1122 1212 22 /112 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹 किसी भी दर पे न फैलें हथेलियाँ मेरी।  ख़ुदा जो प्यार से भर दे तिजोरियाँ मेरी।  सिकुड़के बैठा है क्यों पेट में दिए घुटने बला की ठंड है ले जा रजाइयाँ मेरी।  हर इक बशर ने मेरी शान में क़सीदे पढ़े रक़ीब को ही न भायीं बुलंदियाँ मेरी।  शज़र हैं ठूंठ हवा गुल खिज़ां का मौसम है न जाने कैसे कटेंगी ये गर्मियाँ मेरी।  मदारी हूँ मैं मुहब्बत के गुर सिखाता हूंँ कभी तो देख तू भी आके ख़ूबियाँ मेरी।  जता न मुझको कि कुछ भी नहीं किया मैंने मैं डाल आया हूँ दरिया में नेकियाँ मेरी।  हुनर सिखाया जिसे ज़िंदगी का सब 'मीरा' वही पढ़ाए है मुझको कहानियाँ मेरी।  *** मनजीत शर्मा 'मीरा' ग़ज़ल 1212 1122 1212 22 /112 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹 नहीं यक़ीन तुझे इश्क़ पे ए जाँ मेरी।  वगरना सुर्ख़-रू हो जाती दास्ताँ मेरी।  ग़ुरूर छोड़के आ जा मेरी पनाहों में तड़प रही है तेरे वास्ते ही जाँ मेरी।  बहुत से होते हैं शिकवे-गिले मुहब्बत में  लगाके बैठ न सीने से फब्तियाँ मेरी।  तेरे बिना तो ये गुफ़्तार भी नहीं करतीं...

ग़ज़ल

 ग़ज़ल  2122 1212 22/112 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹 ज़िंदगी में कभी सहर न हुई।  हां मगर आपको ख़बर न हुई।  रात-दिन इंतज़ार था जिसका बात वो सामने मगर न हुई।  भूल जाऊँ मैं ग़म मुहब्बत के रात इतनी भी मुख़्तसर न हुई।  बस मुहब्बत ने तीरगी दी है वरना किस रात की सहर न हुई।  मुब्तिला हम रहे इबादत में पर दुआ फिर भी बा-असर न हुई।  पीठ पीछे ही वार होते रहे दुश्मनी रू-ब-रू मगर न हुई।  एक ही से हुआ था इश्क़ हमें फिर मुहब्बत भी उम्र-भर न हुई।  प्यार में कुछ न कुछ तो था बेजा जो मुहब्बत मेरी अमर न हुई।  प्यार से खेली प्यार की बाजी क्या हुआ गर मेरी ज़फ़र न हुई।  हुस्न में वो जमाल था उसके आंख मेरी इधर-उधर न हुई।  यार का हुस्न देख गूंगे हुए बात फिर हमसे रात-भर न हुई।  क़ब्र पर फूल हैं इबादत के जीते जी तो कभी क़दर न हुई।  शायरी थी वो ज़ेहन से ऊंची बात ये है के नामवर न हुई।  इश्क़ करके भी देख ले 'मीरा' इतनी भी तो अभी उमर न हुई।  *** मनजीत शर्मा 'मीरा'

शिक्षक

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  शिक्षक ऋद्धि सिद्धि हे त्रिपुरारी! सुनों हे गुरुवर मेरे मुरारी। तुम हो जौहरी मेरे दाता। तुझपे जाऊँ मैं बलिहारी। मानव तन में तू है विधाता। जड़ चेतन को ज्ञानी बनाता। तेरी शरण में जो भी आता। ज्ञान दीप्त है वो मनु पाता।। विकार मन का तू है हरता, तेज पुंज रग- रग में भरता। सारे देवगण तेरा अनुयायी, तेरा सुमिरन सब है करता। एकलव्य सम मैं बन जाऊँ, तेरे चरण में भुजा मैं चढ़ाऊँ। तू है द्रोण तू ही है शुक्राचार्य, तेरी महिमा सब को सुनाऊँ। तुम हो सृष्टि के ज्ञान सागर, हम सब का गुरु तू प्रभाकर। शूरवीर सबको एक ही जनता, माँ -पिता है परम अभियंता।। ------------------------------------ कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया बिहार, 6201665486

वादियाँ

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वादियाँ ---------- मैं ठहरा मुसाफ़िर, मुहब्बत का दिवाना। प्रकृति के अंक में, मैंने सौंदर्य को जाना। गिरि से लिपटी, मतवाली हिम की चादरें। यह अद्भुत अनोखा,कुदरत का नज़राना।। ये झूमती, चहकती, और महकती वादियाँ। सुनहरी रश्मि की वल्लरी, नभ की क्यारियाँ। बहती खूबसूरती की धारा, गगन की छाया। रश्मि भरी आँखों से, गिरा रही बिजलियाँ।। दुल्हन - सी  सजी, परी लगती है  वादियाँ। मनमोहनी जादूगरनी सी,दिखती है वादियाँ। झरनों के तान पर, नित्य थिरकती शब यहाँ। सदियों से नयी-नयी, गढ़  रही है कहानियाँ।। प्रेम के फलों से, चहुँ ओर लदी हुई है डालियाँ। खुशबूओं संग हवा, और मचल रही है कलियाँ। ---------------------------------------------------------- कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया बिहार, ( 04/09/20 )

गीत

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  गीत ----- - मेरे गीत अब मुझसे, रूठने लगा। हाथों से जाम जबसे, छूटने लगा। हिज्र की रातें, गमों का प्याला है। मेरे अरमान, जबसे टूटने लगा है। रात  है  शबनमी, काली  घटा है। बरसा  है  बादल, सूखी  धरा है।। भींगी हैं अँखिया, प्यासा है सागर। आशाओं का सूरज, डूब  रहा है।। मन  है  व्याकुल, सदमा  है गहरा। मेरे शब्द अब मुझे, चुभने लगा है। 2। जाना था तूझको, दिल छोड़ जाती। जैसा था मैं पहले, मुझे वैसा बनाती। अगर लेनी थी जान, तूझे मेरी जान। दर्द के बदले में, मुझे जहर दे जाती। हँस कर जहर को भी, मैं पी जाता। अब ये दिन भी, मुझे डसने लगा है।2। अपनों से भी, मैं बिछुड़ गया हूँ। जिन्दा रहकर भी, मैं मर गया हूँ। मेरी बेचैनियाँ,अब बढने लगी है। अब मेरी ये साँसे, घटने लगी है।। जिस्म से जान, निकलने लगी है। पल पल ये मन, मचलने लगा है। 2। कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया 07/08/20

शिक्षक दिवस

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शिक्षक दिवस गुरू हम पर कृपा करना {2}  गुरू हम पर दया करना। अपनी ज्ञान पुंजों से तुम,  सदा शिक्षा का प्रसार करना।  दूर हो अज्ञानता का अंधेरा  ऐसा हम पर प्रभा करना। चमकू सितारों की भांति,  मन का विकार दूर करना।  ईर्ष्या, द्वेष से रहे दूर हम,  ऐसा ज्ञान प्रदान करना।। गुरू हम पर कृपा करना {2}  गुरू हम पर दया करना। । सदा सच का दामन थाम चलूँ,  हममें ऐसा हौसला प्रबल करना।  बनूँ दीन हीन सभी का सहारा,  ऐसा ज्ञान बूंद का वर्षा करना।। देखों कैसे भटक रहा है,  पी.एचडी, बी. काॅम,बी.टेक  धारी ।  हम हैं केवल बीए, बीएससी,  कौन समझे, हमारी लाचारी। गुरू हम पर कृपा करना ।{2} गुरू हम पर दया करना ।। कोई भी हमारी नौकरी लगाओं,  इस बेरोजगारी से हमें बचाओं।  ये कैसी मुसीबत है गुरू भारी,  अब लगा दो नौकरी गैर या सरकारी।। ऐसा इल्म गुरु दे दो हमें,  खुद रोजगार दे सकूं ओरों को।  बेरोजगार ना रहे हम,  बस ये आखिरी ऊपकार करना।। गुरू हम पर कृपा करना ।{2}  गुरू हम पर दया करना ।। कुंदन बहरदार  पूर्णिया (बिहार)...

बदल दे तकदीर

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  बदल दे तकदीर -------------------- उम्मीद की किरण से, बाँध दे शमा को। मजबूत इरादों से, लांघ दे आसमां को।। देख तेरी मंजिल, तेरी राह देख रही है। आज तू कर फ़तह, खुद के अरमां को। वक्त है तुम्हारा, वक्त तुम्हीं से बदलेगा। साध्य दे लक्ष्य को, पत्थर भी पिघलेगा। थामकर चलता चल, मन की डोर को। इस माया नगरी में,तेरा मन भी मचलेगा। यकीन रख खुद पर, तू खुद का साथी है। तू तम को हरने वाला, ज्योत की बाती है। मत खो हौसला को, एक छोटी  हार से। हर हार के बाद, जीत की बारी आती है।। जो अडिग रहता है, हर मुसीबत में यहाँ। एक दिन उसी के पीछे, चलती है कारवाँ। बनकर असि चीरता जा, तू हर तूफां को। अगर बदलना है कुछ,बदल दे तकदीर को। कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया 30/08/20

सुन्दर तस्वीर

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 चित्र आधारित कविता  प्रेम संग पिहुवन मातु अवतारी। सौम्य सूरत लगे नयन कटारी।। स्नेहिल सरोवर भयो बलिहारी। चंदन वन सम, सूता है प्यारी।। हरित चीर  सोहे कंगन, बाली। अद्भुत छटा संगम है निराली।। पुष्पित पुलकित अहो भाग्यशाली। मधुवन सम तन यौवन मतवाली।। मधुर मुस्कान रूप है सुहावन। प्रिय प्रीत मन उर है लुभावन।। देख दृश्य कुंज भाग्य इठलावे। राग भैरवी गीत सबको सुनावे।। कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया 

परी

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  परी  भाल तिलक मृगनयनी।  चंचल मन घर की मयनी। माँ की जान पिता की प्यारी। परियों जैसी लगती हो न्यारी। रूप लुभावन, मन भावन। जन्मदिवस है, तेरा पावन। मधुर मिठास, तेरी वाणी। पलकों पे बैठाई है नानी। चले सदा है तेरी मनमानी। लगती हो परियों की रानी। काली घटा बदरी बन घुमडे। छोटे-छोटे प्यारे, तेरे नखरे।। स्वेत वरण है तुझको भाती। अनंत खुशियाँ तूझमें पाती। तुम्हें मिले यश मेरी है कामना। मैं प्रभु से करता हूँ आराधना।। कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया 6201665486

प्रातः

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  प्रातः   ------- मंद - मंद बहती बयार। सुरभित संगम मनुहार। गगन चूमती सिंधु जल। पावन पुनीत है संसार। कैनवास पे उकेरें रंगों का,  अद्भुत  चित्रों  का भंडार। जीवंत बनाए नभ को यह,  प्रकृति का सुंदर उपहार।।  रक्त तिलक है भाल विराजे।  रश्मि पहुंचे हर घर दरवाजे।  नव उर्जा से सिंचित तन मन।  उद्वेलित आतुर कार्य को जन।  काया कल्प गुण चमत्कारी,  रोग  विनाशक  पीड़ा  हारी।  प्रातः की औषध वाली हवा,  चिर आयु बनाती है हमारी।।  नित्य करे जो प्राणायाम।  उठकर सुबह और शाम।  सबल तन समृद्ध विचार।  बढे तेज मस्तिष्क आयाम।  कुन्दन कुंज  बनमनखी,पूर्णिया  21/08/20

नज्म़

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  नज्म़   ------ मोहब्बत में मैंने खुद को, खुद से भूला दिया। जफ़ा की उसने मुझसे,बेवफ़ा मुझे बना दिया। पलकों पर बैठाया था, जिसको मैंने अपना। माना रब्बा जिसको, जिसको अपना सपना।  इक पल में उसने मुझे, नजरों से गिरा दिया। जहर जिंदगी का, मुस्कुरा कर पिला दिया।। झूठे  वादें  कसमें, तेरी वो  बेखयाली  बातें। संग बिताई, वो भींगी- भींगी बरसाती रातें।।  मुझसे मुझको तूने, क्यों इतना खफ़ा किया।  खुद के नजरों में मुझको, कातिल बना दिया।  आँखों से बहती नदियाँ,कटती नहीं है रतिया।  मुझसे मुझको तूने,क्यों इस कदर जुदा किया।  कुन्दन कुंज  बनमनखी, पूर्णिया  17/08/20

स्वतंत्रता दिवस

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 स्वतंत्रता दिवस   -------------------------------- देश का मान तिरंगा है, देश का शान तिरंगा है। नभ को चुमती मान बढ़ाती,मेरी जान तिरंगा है। माँ रक्त का आँसू बहाई,अपने सूताओं को खोई है।  बहना टूटी तिल-तिल कर, पत्नी ने सुहाग गंवाई है।  लाखों वीर  दिवानों ने, अपनी  जवानी  खोया है।  माता पिता संग देश रोया, संग में नभ भी रोया है।  रक्त से सनी धरा भी रोई, गिरी का उर पसीजा है।  सुमन पग तल पुनीत हुआ,सागर ने पाँव पखारा है।  बढ़ते चले अंगारों पर, असि दुश्मन सीने उतारा है।  लिख गये अमर वो गाथा,अब स्वतंत्र हिंद हमारा है।  आजाद हुआ पिंजरे से पंछी, नभ में पंख पसारा है।  खुशियों के पर लगे, चहुँ ओर हिंद का जयकारा है।।  वर्षों बीत गयी आजादी को, स्वाधीन भी पराधीन है।  जिसने खोया अपना सब कुछ, आज वही बेसहारा है।  दुश्मन बना भाई भाई का, कट्टरपंथी इक सहारा है।  जाति धर्म के नाम पर, सिंचित रक्तों का फव्वारा है।  हिन्दू, मुस्लिम,सिख,ईसाई, हँसकर फंदे से झूल गए। सबने दी आजादी हमको, फिर हम ये कैसे भूल गए।  आओ हम प्र...

चमकू का रिसता घर

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चमकू का रिसता घर  -------------------------- स्वर्ग से भी सुन्दर, है मेरा घर, खिलता धूप, झूमती है बयार। हाड़मांस है, बाँस,पंक, घास,  सर पर लाल टाली का पहाड़।  मौखा सोहे सप्त रंगी चित्र,  घर में नहीं लगा है किवाड़।  कहूँ चूहा बसे कहुँ है सुराग।  स्वर्ग से सुन्दर,मेरा संसार।  पापा मम्मी हम साथ रहे।  भैया का छोटा है परिवार।  खुशियों से सजा, मेरा घर,  मिलता सबकों जहाँ प्यार।  इन्द्र  देव  की, अनुकम्पा  से।  छत से गिरे सावन की फुहार,  शीत, उष्ण  होता  है  मनुहार,  जब उपजती है फसल अपार।  पुरखों की कुछ जागीर मिली।  मत्स्य का चला आ रहा व्यापार,  घर बनाए या बच्चों को शिक्षा दे,  अब बाबूजी भी रहते हैं बीमार।  यह कैसी विपदा है आन पड़ी?  ईश करो मेहनतकश का जुगाड़।  गाँव, शहर, हाट सब बंद पड़े हैं।  वैश्य  वर्ण  का  कर दो उद्धार।।  कुन्दन कुंज  बनमनखी, पूर्णिया  6201665486 

किसान

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  किसान   ---------- हार को जीत में बदलने वाला, होता है किसान। मंदिर में है पाषाण की मूरत,खेतों में है भगवान।  हर मुश्किल  का डटकर, करता है मुकाबला। अन्न देने वाले  देवता का, होता नहीं निबाह।। अपने खून से सींच कर, जो उपजाते हैं अन्न। झूल जाते फंदे से,होता नहीं सूता का विवाह। मेहनत की अग्नि में जलकर, अन्न उपजाते हैं।  फिर क्यों साहूकारों बिचौलियों से,ठगे जाते हैं।  जिन पर लिखी जाती है, सैकड़ों गीत ग़ज़ल। उन्हें क्यों नहीं मिल पाता है, उचित सम्मान।। हमारे हलक तक अन्न पहुँचाने वाले देवता का। क्यों होता है,अपने ही घरों में बारंबार अपमान।  अर्थ व्यवस्था की रीढ़ होता है, देश का किसान। मैं हूँ किसान का पुत्र, मुझे है खुद पर अभिमान। कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया

रक्षाबंधन पर कविताएं

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रक्षाबंधन ------------- आई  राखी  का त्यौहार। खुशियाँ  लाई है हजार।। बहना झूमें  खुशियों संग। पा भाई का अटूट प्यार।। रोली कुमकुम थाल लाई। आरती का दीप जलाई।। बाँध  कलाई  पर  राखी। भाल पर तिलक लगाई।। उमंगों के शिखर पर चढ़। भैया ने राखी बँधवाया।। बादल भी उमर घूमर कर। पावन पुनीत गीत गाया।। बहन माँ सम होता रिश्ता। भाई है बहना का फरिश्ता।। हर संकट में बन कर ढाल। भाई लेता है मोर्चा संभाल।। एक कसम दिलवा दो बहना। मानें भाई बाबू माँ का कहना।। रक्षा करे हर किसी की बहना। वो लेकर योद्धा का अवतार।। आई  राखी  का त्यौहार। खुशियाँ  लाई है हजार।। कुन्दन कुंज बनमनखी, पूर्णिया 6201665486 02/08/ 20 रक्षाबंधन दूसरी कविता - 02 कवयित्री - सोनम चन्द्रा  पूर्णिया, बिहार  भैया तुम इस राखी पर आना   भैया तुम इस बार राखी में आना,  बहना के हाथो से राखी बंधवाना।  नहीं चाहिए कुछ तुमसे भैया,  बस तुम बहना पे आशीष बनाना।  इसी तरह मार्गदर्शन दे कर,  हमें अपनी मंजिल तक पहुँचाना।  तुम करते फ़िक्र कितनी,...