माँ पर बेहतरीन गीत //kavi kundan

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 माँ  ख्वाबों में तू है ख्यालों में तू मेरा है जन्नत मेरी है आरज़ू। तूझे दिल में बसाया है पलकों पर बैठाया है अपने मन के मंदिर में सिर्फ तेरा घर बनाया है मुझमें बहता हर रक्त है तू मेरा है जन्नत मेरी है आरज़ू। तू भगवान हमारा है तू पहचान हमारी है तूझे कैसे बताऊँ माँ तू तो जान हमारी है सांसों में तू है धड़कन में तू मेरा है जन्नत मेरी है आरज़ू। कुन्दन कुंज  पूर्णिया, बिहार 

ग़ज़ल

 ग़ज़ल 1212 1122 1212 22 /112

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किसी भी दर पे न फैलें हथेलियाँ मेरी। 

ख़ुदा जो प्यार से भर दे तिजोरियाँ मेरी। 


सिकुड़के बैठा है क्यों पेट में दिए घुटने

बला की ठंड है ले जा रजाइयाँ मेरी। 


हर इक बशर ने मेरी शान में क़सीदे पढ़े

रक़ीब को ही न भायीं बुलंदियाँ मेरी। 


शज़र हैं ठूंठ हवा गुल खिज़ां का मौसम है

न जाने कैसे कटेंगी ये गर्मियाँ मेरी। 


मदारी हूँ मैं मुहब्बत के गुर सिखाता हूंँ

कभी तो देख तू भी आके ख़ूबियाँ मेरी। 


जता न मुझको कि कुछ भी नहीं किया मैंने

मैं डाल आया हूँ दरिया में नेकियाँ मेरी। 


हुनर सिखाया जिसे ज़िंदगी का सब 'मीरा'

वही पढ़ाए है मुझको कहानियाँ मेरी। 

***

मनजीत शर्मा 'मीरा'


ग़ज़ल 1212 1122 1212 22 /112

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नहीं यक़ीन तुझे इश्क़ पे ए जाँ मेरी। 

वगरना सुर्ख़-रू हो जाती दास्ताँ मेरी। 


ग़ुरूर छोड़के आ जा मेरी पनाहों में

तड़प रही है तेरे वास्ते ही जाँ मेरी। 


बहुत से होते हैं शिकवे-गिले मुहब्बत में 

लगाके बैठ न सीने से फब्तियाँ मेरी। 


तेरे बिना तो ये गुफ़्तार भी नहीं करतीं

ये आंखें बंद हैं ख़ामोश है ज़ुबाँ मेरी। 


तुनक-मिज़ाजी तेरी जख़्मी कर गई दिल को 

कभी तो सुन ले ओ हमदम दुहाइयाँ मेरी। 


यूँ दर्द से मेरे अनजान तो न बन ज़ालिम

पता तुझे भी है दुखती है रग कहाँ मेरी। 


तरस गए हैं मुहब्बत की हामी सुनने को

कभी तो कह दे कि हाँ हो गई है हाँ मेरी। 


सनम चली आ कि अब तो है दम निकलने को

कि राह देखती है कब से आस्ताँ मेरी। 

 

गया जो वक़्त कभी लौटके न आएगा

तड़पना तब तू मुहब्बत में राज़-दाँ मेरी। 


तेरे इशारों पे ही नाचता रहा 'मीरा'

ये भूल बैठा कोई हस्ती है यहाँ मेरी। 

***


मनजीत शर्मा 'मीरा'


ग़ज़ल 1212 1122 1212 22 /112

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नहीं यक़ीन तुझे इश्क़ पे ए जाँ मेरी। 

वगरना सुर्ख़-रू हो जाती दास्ताँ मेरी। 


ग़ुरूर छोड़के आ जा मेरी पनाहों में

तड़प रही है तेरे वास्ते ही जाँ मेरी। 


बहुत से होते हैं शिकवे-गिले मुहब्बत में 

लगाके बैठ न सीने से फब्तियाँ मेरी। 


तेरे बिना तो ये गुफ़्तार भी नहीं करतीं

ये आंखें बंद हैं ख़ामोश है ज़ुबाँ मेरी। 


तुनक-मिज़ाजी तेरी जख़्मी कर गई दिल को 

कभी तो सुन ले ओ हमदम दुहाइयाँ मेरी। 


यूँ दर्द से मेरे अनजान तो न बन ज़ालिम

पता तुझे भी है दुखती है रग कहाँ मेरी। 


तरस गए हैं मुहब्बत की हामी सुनने को

कभी तो कह दे कि हाँ हो गई है हाँ मेरी। 


सनम चली आ कि अब तो है दम निकलने को

कि राह देखती है कब से आस्ताँ मेरी। 

 

गया जो वक़्त कभी लौटके न आएगा

तड़पना तब तू मुहब्बत में राज़-दाँ मेरी। 


तेरे इशारों पे ही नाचता रहा 'मीरा'

ये भूल बैठा कोई हस्ती है यहाँ मेरी। 

***


मनजीत शर्मा 'मीरा'


ग़ज़ल 22 22 22 22 22 2

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दर्द-ए-दिल से बात हुई दीवाने की। 

क्या कोई गोली है प्यार छुड़ाने की। 


नींद नहीं आती है जब से इश्क़ हुआ

हाय जरूरत क्या थी आंख मिलाने की।


मुश्क कहाँ छुपती है इश्क़-मुहब्बत की

कोशिश कर लो चाहे लाख छुपाने की।


मिलने को तो मिल सकता था प्यार बहुत

पर इस दिल को आदत थी ग़म खाने की।


मैं तो सब कुछ भूला था मजबूरी में

तू तो कोशिश मत कर प्यार भुलाने की।


कुछ तो लुत्फ़ उठा लेती मैं अनबन का 

इतनी जल्दी क्या थी यार मनाने की।


घाव भरा करते हैं बोलो कब दिल के

जितनी कोशिश कर लो तुम बहलाने की।


तिल-तिलकर मरती शम्अ न देखी तुमने

देखी तो बस मौत जले परवाने की।


कौन बदल सकता है 'मीरा' की क़िस्मत 

जब तक कोशिश खुद न करे चमकाने की।

***


मनजीत शर्मा 'मीरा'


हाजिर है : गजल


रावण से टकराना होगा 

सीधा बाण चलाना होगा।


चंगुल में जब तक है सीता 

बनकर राम छुड़ाना होगा।


बंजर में चिड़िया चुगती जो

धोखा वाला दाना होगा।


अच्छे कामों पर भी कबतक

बेअदबों का ताना होगा?


गायब है बच्चों की रौनक

ज्ञानी को बतलाना होगा।


निर्धन को निर्धन रेखा से 

कुछ तो ऊपर लाना होगा।


कमिया के हाथों में निश्चय

चाभी और खजाना होगा।


लीक से मत हटना "प्रोग्रामर" 

चौराहे पर आना होगा।


@सुधीर कुमार प्रोग्रामर


★★★★ ग़ज़ल ★★★★


ख्वाब अपने सजाते रहे।

ज़िंदगी आजमाते रहे।।


खुद सुलगते रहे प्यार में।

औ धुआँ हम छुपाते रहे।।


ग़मग़लत का न इमकान था।

इस कदर छटपटाते रहे।।


बेगुनाही,जो मुमकिन न थी।

ग़म छुपाने को गाते रहे।।


मिल न पायी कभी रोशनी।

गश अँधेरे में खाते रहे।।


हसरतों का जख़ीरा 'तपन'।

बेरहम सा लुटाते रहे।।

तपन सर, भागलपुर, बिहार 

ग़ज़ल 

*******


उम्मीद का दीया जला बैठे।

नयनों से नयन मिला बैठे ।


हम यूं खोए यादों में तेरी 

खुद से खुद को भुला बैठे ।


पल भर जो मेरा हो न सका।

दिल उसी से हम टकरा बैठे।


अंजाम से वाक़िफ थे ही नहीं।

दामन पर दाग़ लगा बैठे


जब हुआ इशारा नज़रों का,

दिल जान उसी पे गंवा बैठे।


अंज़ाम ए मुहब्बत सोचा नहीं।

हम चोट जिगर पर खा बैठे।


जो कभी मुकम्मल हो न सका।

वो ख्वाब नज़र में सजा बैठे।


वो निकला दिल का सौदागर।

हम उसी को ख़ुदा बना बैठे।


मणि बेन,


ग़ज़ल बहुत ही सामयिक विषयों पर आधारित 


                      ग़ज़ल 

तू रात की रौनक है हम दिन के उजाले हैं 

दामन में तेरे ख़ुशियाॅ हम ग़म

के हवाले हैं  

चेहरों के बदलने से सरकार न बदलेगी

इस वक़्त दलों में भी अनुबन्ध निराले हैं 


सर पीट चुका अपना अब शर्म भी आती है 

अफ़सोस कि ढेरों ग़म ख़ुद लोगों ने पाले हैं 


हैं पाँव कमल जिन के वो ताज ही पहनेंगे 

भूखे तो मरेंगे वो जिन पैरों में छाले हैं 


पथराव हुआ मुझ पर तब आॅख खुली मेरी 

मैं तो ये समझता था कम चाहने वाले हैं 


'आज़ाद 'जिन्हें दुनिया हमदर्द समझती है 

ऊपर से ही उजले हैं अन्दर से तो काले हैं 


आज़ाद कानपुरी राष्ट्रीय कवि शायर कानपुर


गज़ल 

कभी ऊला नहीं जँचता कभी सानी नहीं जँचता |

ग़ज़ल कैसे भला कह दूँ मुझे मानी नहीं जँचता ||


नज़र तुझको अभी आए बहुत से ऐब हैं मेरे |

जो दिलक़श था कभी तुझको फ़क़त पानी नहीं जँचता ||


तेरा यूँ साथ न होना नहीं कुछ भी बुरा इसमें |

हुनर तेरा मगर मुझको गिराँ - जानी नहीं जँचता ||


अभी ऐसा लगा जैसे मुझे तूने पुकारा है |

तेरे बिन अब मुझे कुछ भी मेरे जानी नहीं जँचता ||


समर कुछ ख़्वाब फिर होंगे रहे ग़र पास तू मेरे |

मुझे 'मन' आज-कल ये अश्क़-अफ़्शानी नहीं जँचता ||


मनीष कुमार शुक्ल 'मन'

लखनऊ |


गिराँ-जानी= ज़िद्दीपन

जानी= महबूब

अश्क़-अफ़्शानी= आँसू बहाना, रोना


ग़ज़ल

*****

खुद कभी आते नहीं हमको बुलाते भी नहीं।

क्या खता हुई है मुझसे वो बताते भी नहीं।


रूठ कर जब से गए हैं साथ मेरा छोड़ कर।

इन बुझी आंखो में सपने हम सजाते भी नहीं।


कह गए आऊंगा इक दिन लौट कर तेरे लिए।

राह तकती मैं रही वो लौट आते भी नहीं।


लुट गया जब से मुहब्बत का हमारी कारवां।

अब किसी से फिर दुबारा दिल लगाते भी नहीं।


वक्त ने जब से करोना का कहर बरपा दिया।

क़ैद सब अपने घरों में आते जाते भी नहीं।


देख उनकी बेरुखी जब दिल मेरा घायल हुआ।

रूठने पर अब कभी मुझको मनाते भी नहीं ।


दौलतों के स्वार्थ में इंसान यूं पागल हुआ।

खून के रिश्ते भी अब कोई निभाते भी नहीं।


मैं तुम्हारा ही रहूंगा रात दिन कहते थे जो।

ख़्वाब में अब वो हमारे आते जाते भी नहीं।


एक पल देखे बिना उनको क़रार आता नहीं।

बात दिल की हम उन्हें समझा पाते भी नहीं।

मणि



एक ग़ज़ल

----------------

आंख कुछ पल के लिए यूं नम हुई होगी

या किसी की याद में शबनम हुई होगी


हर तरफ वीरान है, मायूस है मंजर 

अब यहां तो चोट भी हमदम हुई होगी


बेवजह कोई यहां रोता नहीं साहब

भूख की चौखट पे धड़कन कम हुईं होगी


मुस्तहक कोई व्यवस्था हो यहां फिर से

जी यक़ीनन बेबसी बेदम हुई होगी


खुशनुमा ये दौर कैसा, है खुशी कैसी

कुछ सियासत आजकल सरगम हुई होगी


------------------ अलबेला '


पल-पल अदबी लाश गिराते कितने सारे क़ातिल हैं।

हम भी तुम भी और न जाने कितने सारे शामिल हैं।।


महफ़िल-महफ़िल रंग बदलते हमने देखा कितनों को।

कुछ कह के कुछ और ही करते कितने सारे बातिल हैं।।


हमने देखे ख़ूब सुख़नवर मर-मर के जीने वाले।

कितने तरसे नाम-ए-सुख़न को कितने सारे बिस्मिल हैं।।


लाखों शायर डूब मरे हैं झगड़ा है मेयारी का।

कहने को है एक ही दरिया कितने सारे साहिल हैं।।


लम्हा-लम्हा ख़ूब तराशा हमने‌ इन अशआरों को।

कितने मिसरे छूट गए हैं कितने सारे हासिल हैं।।


शायर तेरी ज़ात न कोई ना ही कोई मज़हब है।

'मन' दुनिया में बाब-ए-सुख़न के कितने सारे माइल हैं।।


मनीष कुमार शुक्ल 'मन'

लखनऊ।


इक तरफ़ तन्हाइयाँ हैं इक तरफ़ मेरा क़फ़न।

इक तरफ़ वीरानियाँ हैं इक तरफ़ तुख़्म-ए-सुख़न।।


मैं निकल सहरा से आया फिर तज़ुर्बा ये किया।

इक तरफ़ नमकीन पानी इक तरफ़ तिश्ना-दहन।।


रूह निकली जिस्म से जब तब समझ आया मुझे।

इक तरफ़ जो ख़ाक़ है वो इक तरफ़ है पैरहन।।


दौर की ख़ामी बदल सकती उसूलों को नहीं।

इक तरफ़ मेरा अदब है इक तरफ़ सबका चलन।।


बस यही दो‌ ज़ाविये मुझ को मिले हैं हुस्न से।

इक तरफ़ वो संग-दिल है इक तरफ़ है गुल-बदन।।


ज़ह्न के हिस्से हुए दो दिल भी दो टुकड़े हुआ।

इक तरफ़ है जान-ए-मन तो इक तरफ़ है जान-ए-'मन'।।


मनीष कुमार शुक्ल 'मन'

लखनऊ।


तुख़्म-ए-सुख़न= कविता का बीज

तिश्ना-दहन= प्यासा मुँह

पैरहन= वस्त्र

ख़ामी= कच्चापन, अपरिपक्वता, कमी, अनुभवहीनता

अदब= हर चीज़ का अंदाज़ा और हद को दृष्टि में रखना, शिष्टता, सभ्यता, तमीज़, आदर, सत्कार, ताज़ीम, साहित्य, कला, बुद्धि, विवेक

चलन= आदत, शैली, रीति, व्यवहार

जाविया= नज़रिया, दृष्टिकोण

संग-दिल= पत्थर-दिल

गुल-बदन= फूल सा नाज़ुक/कोमल शरीर वाली

जान-ए-मन= प्रेमिका

जान-ए-'मन'= 'मन' (शायर) के प्राण


महकता खुश नुमा चेहरा ।

दिखा मुझ को तेरा चेहरा ।।


दुआएँ पढ़ने लगता है ।

लरज़ता है मेरा चेहरा ।।


किसी दिल में उतरने को ।

सँवरता है नया चेहरा ।।


शरारत खूब करता है ।

नज़ाकत से सजा चेहरा ।।


अकेला रह गया जब भी ।

बहुत रोया डरा चेहरा ।।


चमक जाने कहां खोई ।

मेरा चेहरा मरा चेहरा ।।


जवां रहता तबस्सुम से ।

हमेशा रख हँसा चेहरा ।।


जो होगा देख लेंगे 'मन' ।

तू चेहरे से लड़ा चेहरा ।।


मनीष कुमार शुक्ल 'मन'

लखनऊ ।


आज एक मुकम्मल ग़ज़ल 

   _____


जब तेरा एहसास मिला है।

जीवन को विश्वास मिला है।


 साँसों में महकी कस्तूरी,

यौवन को मधुमास मिला है।


 छोटी सी लगती है दुनिया,

जब से तुझमें वास मिला है।


 धूप मुंडेरों पर जब बिखरी,

तेरा ही आभास मिला है।


 तुझ संग आँखों के सपने हैं,

यही ख़ज़ाना ख़ास मिला है।


 ऐसे जीवन में आये हो

अश्कों को बनवास मिला है।


 इच्छाओं के इस पंछी को

पंख मिले आकाश मिला है।


   सोनिया अक्स़


~~~~~~~ग़ज़ल~~~~~~


ज़िंदगी भी है कहाँ आसान यारो।

दीखते कम ही यहाँ इन्सान यारो।।


आज है जुल्मों सितम का दौर कैसा।

है जहाँ पानी से सस्ती जान यारो।।


रूठना,लड़ना, झगड़ना लाज़िमी है।

जंग है रिश्तों में ही घमसान यारो।।


हो गए माँ -बाप गंगालाभ जब से।

अब कहाँ संबंध में वो जान यारो।।


हर तरफ तारीकियाँ पसरी हुई हैं।

रोशनी का फिर भी है इमकान यारो।।


तंग हर संबंध का अब दायरा है।

सब समझकरभी हैं हमअंजान यारो।।


ऐ 'तपन' देखो बुढ़ापे में हुए क्या।

ज्यों दरीचे पर पड़ा सामान यारो।।


शब्दार्थ : ---

दरीचे =सहन या बरामदा

तारीकियाँ = अँधेरे

इमकान = उम्मीद, आशा



★★★★★ग़ज़ल★★★★★


इक सितारा बहुत झिलमिलाता रहा।

रोशनी उम्र भर जो लुटाता रहा।।


यूँ भरोसा नहीं था ख़ुदी पर जिसे।

बस वही बारहा मात खाता रहा।।


एक दुनिया मुकम्मल हमारी भी थी।

क्यों वहाँ बेसबब कोई आता रहा।।


आपको प्यार का इक ख़ुदा मानकर।

ग़म सहे तल्ख़ रिश्ते निभाता रहा।।


टीस दिल में ज़िगर में जो दी आपने।

आज तक वो ग़ज़ल में सुनाता रहा।।


रात भर ज़िंदगी ज़िंदगी की तड़प।

कोई रोता रहा कोई गाता रहा।।


जिसपे त़कदीर की हो एनायत बहुत।

वो भी ग़ुरबत के आँसू बहाता रहा।।


इस जहां का यही कायदा है 'तपन'।

लाख भूखे रहे एक खाता रहा।।


                                 दिनेश 'तपन' 

                                11 -6- 2020



~~~~~~~~~ग़ज़ल~~~~~~~~~


एक रांझे की चली थी हीर होने।

आ गयी वो चलके दामनगीर होने।।


ख्वाब में इकरोज सुल्तानी मिली क्या।

चल पड़ा बंदा वो आलमगीर होने।।


साठ का सिन औ जुनूने इश्क देखो।

तीसरी लाए ही क्यूँ दिलगीर होने।।


शेखचिल्ली की तरह मत तू किया कर।

उम्र भी कहती है अब गंभीर होने।।


कलतलक जिसको ग़ज़ल आती नहीं थी।

आज देखो वो चला है मीर होने।।


दर्दोगम से आश्ना अब और कितना।

ऐ 'तपन' आ चल दमड़िया पीर होने।।


शब्दार्थ :

          सिन = उम्र

         दिलगीर = दुखी ,दुखित

        दामनगीर = दामन पकड़नेवाला



ग़ज़ल :


अँधेरा इतना घना नहीं है

ये मस'अला भी बड़ा नहीं है।


है ज़ख्म गहरा इसे ना छेड़ो

अभी हरा है, भरा नहीं है।


भले ज़माना कहे बुरा पर 

वो शख़्स इतना बुरा नहीं है।


यहाँ से कैसे भला मैं निकलूँ ?

कोई भी रस्ता खुला नहीं है।


अभी तो उसने है रंग बदला

अभी पराया हुआ नहीं है।


भले ही कितने भी फ़ासले हो

वो दूर है पर जुदा नहीं है।


अभी भी हमको यकीं है उसपर

 ये उसका धोखा नया नहीं है।


हमारे दिल मे है प्यार अब भी

है प्यार ज़िंदा, मरा नहीं है।

 

कोई हो ऐसा जो हमको समझे

तलाश है पर मिला नहीं है।


अगर उदासी है अपनी क़िस्मत

तो हमको उससे गिला नहीं है।


                                            Kirti


___________________________________


Andhera itna ghana nhi hai

Ye marsala bhi bada nhi hai


Hai jakhm gehra ise na chhedo

Abhi hara hai bhara nhi hai


Bhale zamana kahe bura par

Wo shakhs itna bura nhi hai


Yanha se kaise bhala mai niklu

Koi bhi rasta khula nhi hai


Abhi to usne hai rang badla

Abhi paraya huwa nhi hai


Bhale hi kitne bhi faasle hon

Wo dur hai par juda nhi hai


Abhi bhi mujhko yakii hai uspr

Ye uska dhoka naya nhi hai


Humare dil me hai pyaar abbhi

Hai pyar zinda mara nhi hai


Koi ho aisa jo humko samjhe

Talaash hai par mila nhi hai


Agar udasi hi apni qismat

To humko usse gila nhi hai..


Kirti..



ग़ज़ल


यूँ तड़पाना ठीक नहीं

आकर जाना ठीक नहीं

*

दर्पण के आगे ख़ुद पर  

यू्ँ इतराना ठीक नहीं

*

ग़म में बेशक टूट रहा

अश्क बहाना ठीक नहीं

*

इक दूजे की आँखों का

यूँ टकराना ठीक नहीं

*

पागल मन तो वहसी है

यूँ समझाना ठीक नहीं

*

दुनियादारी पर तेरा

नाक चढ़ाना ठीक नहीं

*

आस जगाकर 'जय' दिल को

यूँ तरसाना ठीक नहीं


जयसिंह आर्य ,दिल्ली

मौ. 9910701665


ग़ज़ल


कोशिश तो सभी ने की हालात नहीं बदले

बदला है समय लेकिन दिन-रात नहीं बदले

*

बदला है कैलेंडर तो बदले ना अंधेरे हैं

आघात नहीं बदले प्रतिघात नहीं बदले

*

पढ़ते हैं यें रामायण कुरआन वो पढ़ते हैं

इस पर भी कदूरत के ज़ज़्बात नहीं बदले

*

इंसान भले बदले बदली ने मगर पीड़ा

बदले हैं कलम लेकिन नग़्मात नहीं बदले

*

जो बात बदलते हैं इंसान कहांँ है वो

इन्सान वही है 'जय' जो बात नहीं बदले


प्रस्तुत ग़ज़ल मैं अपने ग़ज़ल संग्रह' "आँधियों के दरमियाँ "से पटल पर लाया हूँ


डा.जयसिंह आर्य


एक ग़ज़ल----------------------

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दिल में इक तूफ़ान दबाये बैठे हो

आँखों में जलधार छुपाये बैठे हो


जिसने जीने का हक़ छीन लिया तुमसे

अब भी उस पे जान लुटाये बैठे हो


ठुकरा के जो चला गया बरसों पहले

उसकी ख़ातिर दिया जलाये बैठे हो


जिसने प्यार किया दिल से चाहा तुमको

क्यों आख़िर तुम उसे भुलाये बैठे हो


शब के बाद सहर आयेगी मत भूलो

क्या ग़म है जो मुँह लटकाये बैठे हो


इक दिन तो इंसाफ़ मिलेगा ये तय है

फिर ज़ुल्मों से क्यों घबराये बैठे हो


धरती और नदियों का पानी सूख गया

"राही"फिर भी फसल उगाये बैठे हो


"राही"भोजपुरी,जबलपुर मध्य प्रदेश।


1222 1222 1222 1222

 🌷🌷एकांत वास की ग़ज़ल 🌷 🌷


हमारी दुखती रग उसने नहीं छेड़ी बहुत दिनसे 

हमारी याद क्या उसको नहीं आई बहुत दिनसे


समाया था वो इस दिल में हमारी धड़कनों जैसी 

नज़र आती है दिलकी बस्तियाँ सूनी बहुत दिनसे 


वो कहते थे कि तेरे बिन बड़ा दुश्वार है जीना 

मगर सूरत मेरी उसने नहीं देखी बहुत दिनसे 


बिना मौसम हुआ करती थीं अश्कों की वो बरसातें 

कहाँ बरसातमें भी ये पलक भींगी बहुत दिनसे

 


तेरी यादों की दस्तावेज बन बैठी है सब चिट्ठी 

इन्हें तो डाक खाने में नहीं डाली बहुत दिनसे 


खुदाया ख़ैर हो अपने पराये सब परीशां हैं 

ख़बर आई नहीं कोई कभी अच्छी बहुत दिनसे 


तुम अपनी बात तो शेरों में कहते हो अनिल लेकिन  

तुम्हारी बात लोगों ने नहीं मानी बहुत दिनसे


#अनिल/5.4.20



ग़ज़ल 1121 2122 // 1121 2122 

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हो जो इश्क़ एकतरफा तो भी बेमज़ा नहीं है। 

जो नहीं हो ज़ेहन-ओ-दिल में वो भी तो सखा नहीं है। 


ग़म-ए-इश्क़ की डगर में कोई हमनवा नहीं है। 

है सफ़र तवील ख़ासा यहाँ मरहला नहीं है। 


शबो-रोज़ ग़म सताए कहीं इश्क़ कर न बैठूं 

ये वो रोग है कि जिसकी कोई भी दवा नहीं है। 


मुझे डूबने दो गहरे ग़म-ए-इश्क़ की नदी में

ये खुशी तो हो मयस्सर कोई नाख़ुदा नहीं है। 


मुझे हमसफ़र मिले या न मिले गिला करूँ क्यों

है ख़ुदा वो मेरे दिल का जिसका ख़ुदा नहीं है। 


तुझे हो न गर मुहब्बत किसी को न बरगलाना

दे दी बददुआ जो दिल ने बचे रास्ता नहीं है। 


कभी आंखें मत चुराना जो चुराओ दिल किसी का 

करें क्या कि दिल है नाज़ुक रखे हौसला नहीं है। 


चलो चांद पर ए 'मीरा' नई दुनिया हम बसाएं

ये तो मौत का नगर है यहाँ पर बक़ा नहीं है। 

***


मनजीत शर्मा 'मीरा'


*ग़ज़ल*


बात यह भी ज़रा सोचकर देखते 

कैसे करती है नारी बसर देखते।


काम पर राह में घर पे भी ज़ुल्म हैं 

सारे क़ानून हैं बेअसर देखते ।


जो दरिंदे हैं वहशी हैं बदमाश हैं 

हुक़्मराँ लेके उनकी ख़बर देखते।


सहमी सहमी सी नारी मिली हर कहीं

हम निगाहें उठा कर जिधर देखते।


ख़ात्मा मैंने कैसे किया ज़ुल्म का 

आप उस वक़्त मेरा जिगर देखते।

 

मैंने कैसे संवारा है उजड़ा जहां

आप आकर कभी तो इधर देखते।


इतनी कमज़ोर होती न बेटी कोई 

बेटियों को भी ममता से गर देखते।


ज़ुल्म बढ़ते न दुनिया में इतने कभी 

बेटों की हरकतें तुम अगर देखते।


'राज' कैसे बनेगी *गुरू* सी ग़ज़ल 

काश अपने में ऐसा हुनर देखते।


डॉ राज बाला "राज" कवयित्री

राजपुरा हिसार हरियाणा

20/03/2020


ग़ज़ल


ज़िंदगी हर क़दम पे हारी है

तीर साधे खड़ा शिकारी है।


वक़्त बदला है कह रही दुनिया

कितनी लाचार अब भी नारी है।


कौन तोड़ेगा इतनी ज़ंजीरें

यह मुसीबत ही सबसे भारी है। 


जैसे चाहे हमें नचायेगा

यह ज़माना बड़ा मदारी है। 


कैसे मन की ख़ुशी मनाऊँ मैं

देना होती जवाबदारी है।


उसको कैसे सनम भुलाऊंगी 

मेरे सर पर जो ज़िम्मेदारी है।


औरतें सर उठा के चल पायें

जंग मेरी अभी ये जारी है।


*राज* यह सोच कर क़दम रखना 

राह मुश्किल ज़रा हमारी है।


डॉ राजबाला "राज"

 13/03/2020


ग़ज़ल

★★★★★★★

जिंदगी कुछ यूँ भी हम आसान करते हैं।

रोज थोडा जोग जप औ ध्यान करते हैं।।


आप जब तक दो दफ़ा खाकर पचाते हो।

उस घड़ी तक हम महज जलपान करते हैं।


धन छिपा रखते कहीं जाकर विदेशों में।

आप वो करते हैं जो बैमान करते हैं।।


जिन किसानों की बदौलत मुल्क पलता है।

खूं -पसीना से वो हिन्दुस्तान करते हैं।।


दौर तो बस है यहाँ टुच्ची सियासत का।

वीर वो हैं खुद को जो बलिदान करते हैं।।


जिस खुदाताला ने हमको ज़िन्दगी बख़्शी।

सब वही होता है जो भगवान करते हैं।।


कौन है मुहसिन भला किससे वतन का है।

अब 'तपन'इस सचकी हम पहचान करते हैं।।




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